मानसून की पहली बूंद से लेकर अब तक टोंक के नागरिकों की आंखें बस एक ही चीज़ तलाश रही हैं—नहर की सफाई। लेकिन हाय! उनकी उम्मीदें और इंतजार सब धरे के धरे रह गए हैं। 3.5 किलोमीटर लंबी नहर की सफाई के नाम पर जल संसाधन विभाग ने महज़ खानापूर्ति की है। 11 लाख रुपए से अधिक का टेंडर पास होने के बावजूद सफाई में सिर्फ मनमानी हो रही है, और नहर में जलभराव बढ़ता ही जा रहा है।
ठेका फर्म की कार्यशैली देखते ही बनती है—नहर के बाहर दिखने वाले कुछ हिस्सों को साफ कर दिया, और अंदर की गंदगी जस की तस छोड़ दी। जल संसाधन विभाग के अधिकारी इस पर अनजान बने हुए हैं, या फिर यूं कहें कि ‘अनजान बने रहने का नाटक’ कर रहे हैं।
इस नहर पर अतिक्रमण की भी कमी नहीं है। कहीं कबाड़ गोदाम का कचरा नहर में डाला जा रहा है तो कहीं नहर के आस-पास स्थित घरों का गंदा पानी। स्थानीय लोग इस बदबू और गंदगी के बीच जीने को मजबूर हैं। नहर, जो 1981 की बाढ़ के बाद पानी को डायवर्ट करने के लिए बनाई गई थी, अब ‘गंदगी की नहर’ बन गई है।
टोंक के लोग पूछ रहे हैं, “क्या यह सफाई का तरीका है?” लेकिन उनके सवाल हवा में गूंजते रह जाते हैं। जल संसाधन विभाग को तत्काल नहर की सफाई करनी चाहिए और अतिक्रमण को हटाना चाहिए। लेकिन जब तक यह नहर प्रशासन की लापरवाही और ठेका फर्म की मनमानी का प्रतीक बनी रहेगी, तब तक टोंक के लोगों को हर मानसून में ‘गंदगी की नहर’ का सामना करना ही पड़ेगा।
कहते हैं, “सफाई भगवान के करीब ले जाती है,” लेकिन यहां की सफाई देखकर तो लगता है कि भगवान भी इस नहर से दूर ही रहना चाहेंगे!